Indias Panchnad Is The Only Place In The World Where 5 Rivers Meets Check Here

[ad_1]

Panchnad: नदियां किसी भी देश की भूमि रुपी शरीर के लिए नसों का काम करती हैं. नदियों से हमारी कई जरुरतें पूरी होती हैं. ज्यादातर मानव सभ्यताओं का विकास भी नदियों के किनारे ही हुआ है. ऐसा कहा जाता है कि नदी अपना रास्ता खुद बनाती चलती है और जो भी चीज इसके रास्ते में आती है, ये उसे अपने साथ ले लेती है. बहुत सी जगह ऐसी हैं, जहां दो या उससे अधिक नदियां आकर एक-दुसरे में मिलती हैं. जैसे; प्रयागराज में भारत की 3 प्रमुख नदियों, गंगा, यमुना और सरस्वती का मिलन होता है, लेकिन आज हम आपको दुनिया की उस इकलौती जगह के बारे में बताने जा रहे हैं, जहां एक, दो या तीन नहीं बल्कि पांच नदियां आपस में मिलती हैं.

कहां है ये जगह?

आपने शायद अभी तक देखा और सुना होगा कि भारत में कुछ ऐसी जगहें हैं जहां नदियों का संगम होता है. उदाहरण के तौर पर, प्रयागराज में गंगा, यमुना और सरस्वती का संगम होता है. प्रयागराज को तीर्थराज भी कहा जाता है, क्योंकि यह श्रद्धालुओं के लिए महत्वपूर्ण तीर्थ स्थल है. हालांकि, क्या आपको पता है कि भारत में एक ऐसी जगह भी है जहां पांच नदियों का संगम होता है? इस स्थान को पचनद के नाम से जाना जाता है, जो जालौन और इटावा की सीमा पर स्थित है. यह स्थान प्रकृति का अनोखा उपहार है, क्योंकि इस प्रकार का संगम बहुत ही कम देखने को मिलता है.

पंचनद में किन नदियों का मिलन होता है?

दुनिया में यह ऐसी एकमात्र जगह है जहां पांच नदियों का संगम होता है. पचनद में यमुना, चंबल, सिंध, कुंवारी और पहज नदियों का मिलन होता है. पचनद को महा तीर्थराज के नाम से भी जाना जाता है और हर साल यहां श्रद्धालुओं की भीड़ उमड़ती है. शाम होते ही इस जगह का नजारा काफी खूबसूरत हो जाता है. इसके अलावा, पचनद के बारे में कई प्रसिद्ध कहानियां हैं, लेकिन इस कहानी की प्रसिद्धि अन्य कहानियों की तुलना में काफी ऊंची है. यह कहा जाता है कि महाभारत काल में पांडव भ्रमण के दौरान पचनद के पास ही रुके थे. भीम ने इसी स्थान पर बकासुर का वध किया था.

स्थानीय लोगों की मान्यता

इसके अलावा एक और प्रसिद्ध कहानी इस स्थान से जुड़ी है. यहां के लोग मानते हैं कि यहां के महर्षि मुचकुंद की यशस्वी कथा सुनकर एक बार तुलसीदास जी ने उनकी परीक्षा लेने का निर्णय लिया. तुलसीदास जी ने पचनद की ओर अपना पदयात्रा शुरू की और पानी पीने के लिए आवाज बुलंद की. इस पर महर्षि मुचकुंद ने अपने कमंडल से जो जल छोड़ा, वह कभी नहीं खत्म हुआ और तुलसीदास जी को ऋषि मुचकुंद के महत्त्व को स्वीकार करना पड़ा और उनके सामने नतमस्तक हो जाना पड़ा.

यह भी पढ़ें – कभी सोचा है समय के साथ सिक्कों का आकार छोटा कैसे होता चला गया? क्या है इसकी वजह

[ad_2]

Source link

x