यदि महाभारत फिर से लिखा जाए तो, कृष्ण अर्जुन के सारथी बनते ही नहीं, साफ बोल देते कि….

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शरद जोशी हिंदी व्यंग्य के आइकॉन हैं. उन्होंने व्यंग्य विधा को ना केवल हिंदी साहित्य में विशेष दर्जा दिलाया बल्कि व्यंग्य के ऐसे मानक तैयार किए जिन्हें अभी तक कोई रचनाकार पार नहीं कर पाया है. शरद जोशी जीवन की हर घटना-प्रतिक्रिया में व्यंग्य खोज लेते हैं. अब हमारे महाकाव्य और धर्मग्रंथ महाभारत की ही बात करें तो शरद जोशी अपनी शैली में कहते हैं कि अगर महाभारत आज के समय में लिखा जाए तो कैसा होगा, क्या महाभारत के पात्र फिर से वह मानक स्थापित कर पाएंगे जो उन्होंने आज से हजारों साल पहले किए थे.

शरद जोशी लिखते हैं कि महाभारत के रचियता वेद व्यास से लेकर भगवान श्रीकृष्ण से लेकर अर्जुन, युधिष्ठिर, कौरव, पाड़व तक हर पात्र क्या वर्तमान समय में अपने वचन, निष्ठा, त्याग, सत्य और समर्पण पर खरे उतर पाते. राजकमल प्रकाशन से शरद जोशी का व्यंग्य संग्रह ‘वोट ले दरिया में डाल’ प्रकाशित हुआ है. इसी संग्रह में एक व्यंग्य है- “यदि महाभारत फिर से लिखा जाए“. आप भी आज की महाभारत का आनंद लें-

आदमी का स्वभाव है कि वह गुटका तलाशता है. मगर हमारे देश में अभी विद्वान व्यक्ति और व्यस्त व्यक्ति की दो अलग-अलग श्रेणियां नहीं बनीं. हजार पन्नों की किताब देख कोई घबराता नहीं, पढ़ने पर बोर नहीं होता. लेखक अपनी बात को विस्तार देना जानते हैं. एक सामान्य कथानक के पिचके गुब्बारे में अपनी प्रतिभा से इतने शब्द फूंक देते हैं कि वह फूलकर मोटा हो जाता है और लेखक का नाम साहित्य के अंधेरे में ‘निओन साइन’-सा चमकने लगता है. इसी कारण पाकेटबुक्स के इस जमाने में अभी भी कद्दू के आकार की किताबें बाजार में आती रहती हैं और वे पाठक जिनके दिमाग और काठ की अलमारियां मजबूत हैं, उन्हें खरीदते रहते हैं. इस प्रोत्साहन के बावजूद किसी लेखक में इतनी हिम्मत नहीं हुई कि वह महाभारत-सा महाग्रन्थ रच दे, जिसमें बड़ी, छोटी कथाओं, प्रसंगों और चरित्रों की अच्छी-खासी प्रदर्शनी लगी हो. यद्यपि उस महाभारत के बाद भी अनेक युद्ध लड़े गए, परिवारों में झगड़े हुए और षड्यन्त्र रचे गए, नया महाभारत नहीं रचा गया.

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महाभारतकार व्यासजी एक मामले में आज के लेखक की तुलना में किस्मतवाले थे. उनकी उम्र लम्बी थी. विचित्रवीर्य के जमाने से जनमेजय तक वे सक्रिय रहे. महाभारत की भूमिका से अन्त तक उन्होंने सब-कुछ देखा और महाग्रन्थ रच दिया. आज भी महाभारत होते हैं पर लेखक उससे दूर हैं और अगर पास हैं तो बात को पूरी तौर से समझने में असमर्थ. यदि चित दिखे तो पट का भेद समझने में असमर्थ और पट नजर आए तो चित की व्याख्या करने में असमर्थ. महाभारत-सा प्रोजेक्ट उसके बस की बात नहीं. एक जिन्दगी में यह काम नहीं हो सकता. धृतराष्ट्र, युधिष्ठिर, भीम, अर्जुन, कृष्ण, द्रौपदी, दुर्योधन, अश्वत्थामा और कर्ण की टक्कर का एक भी पात्र ठोस रूप में मिल जाए तो एक शानदार उपन्यास के लिए वह काफी हो. इनमें से सिर्फ एक के दम पर ऐसा तम्बू ताना जा सकता है कि साहित्य में नाम अमर हो जाए. व्यासजी ने तो इस मामले में गजब कर दिया. जयद्रथ, विदुर, शकुनि, दुःशासन, अभिमन्यु आदि छोटे चरित्र भी इतने खड़े कर दिए कि भुलाए नहीं जा सकते. इसी कारण कई बार सन्देह होता है कि व्यास एक व्यक्ति है या लेखकों की कोआपरेटिव सोसाइटी-लगता है, एक कमेटी है जो सरकारी मदद से काम कर रही है.

जमाना बदल गया. अगर आज कर्ण से कोई ब्राह्मण कवच, कुंडल मांगने जाता तो वह तुरन्त कहता- “वाह प्यारे! हमी रहे मूर्ख बनाने को! तुम्हें कवच, कुंडल दे दें तो हम क्या करें, रोएं तुम्हारे नाम को? चलो, खिसको यहां से!” आज कौरव, पांडव जुआ या तीन पत्ती खेलते तो भूलकर भी कोई राज्य दांव पर न लगाता. और अगर लगाकर हार भी जाता तो दूसरे दिन राज्य देने से साफ इन्कार कर देता कि भाई मैं होश में नहीं था, माफ करना. पांडवों को अगर वन में जाना पड़ता तो वे जाते ही एक कोआपरेटिव सोसाइटी बना लेते और वन की लकड़ियां, तेंदू पत्ते आदि ‘फास्फेट प्रोडक्ट’ बेचने का धन्धा शुरू कर देते.

आज कृष्ण अर्जुन के सारथी बनते ही नहीं, साफ बोल देते कि मुझ-जैसी पोजीशन का आदमी ऐसी छोटी पोस्ट पर काम कैसे कर सकता है. और अगर बन ही जाते तो अर्जुन को गीता का उपदेश सुनने का मौका नहीं आता. अर्जुन कृष्ण से साफ कह देता- मेरे मामले में बोलने वाले तुम कौन? तुम्हारा काम है रथ चलाना, सो चलाओ, बेकार बहस करने की जरूरत नहीं. जिस दिन कौरव चक्रव्यूह रचते उस दिन अभिमन्यु उसमें घुसता ही नहीं. मुसीबत उठाने से क्या फायदा? एक दिन लड़ाई न सही, चलेगा. अगर अभिमन्यु चक्रव्यूह में फँस ही जाता तो कौरव के सिपाहियों को रिश्वत दे बाहर आ जाता.

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जमाना बदल गया है, तौर-तरीके बदल गए हैं. नया-नया लेखक अगर महाभारत लिखना शुरू ही कर दे तो बात आगे न बढ़े. जुए में राज्य हार जाने वाले पांडवों को द्रौपदी तलाक दे देती और छुट्टी करती. और अगर जमीन के बँटवारे के सवाल को लेकर भाइयों में झगड़ा होता भी सही तो कचहरी में होता. मामला बरसों जिला-कोर्ट से आगे नहीं बढ़ता. इसी बीच अगर महाबली भीम किसी दिन दुर्योधन के साथ मारपीट कर लेते तो तुरन्त फौजदारी का मुकदमा और लग जाता. धर्मराज युधिष्ठिर, गांडीवधारी अर्जुन, महाबलशाली भीम, नकुल और सहदेव के साथ बरसों तक रोज कचहरी के बरामदे में सिर लटकाए बैठे रहते. कौरव तारीखें बढ़वाते रहते और मुकदमा टलता रहता. युधिष्ठिर के जमाने से चला मुकदमा अगर जनमेजय के समय भी निबट जाता तो उसे जल्दी ही निबटा माना जाता. उस महाभारत में ‘नरो वा कुंजरो वा’ किस्म का सिर्फ एक बयान कलंक बनकर रह गया, पर नए महाभारत का हर पात्र रोज कचहरी में झूठे बयान देता कि दूसरे पक्ष के लिए सबूत देना कठिन हो जाता. वकील के चक्कर लगाते बेचारे धर्मराज के पैर छिल जाते. जितना जुए में नहीं हारते उससे अधिक तो वकीलों पर खर्च हो जाता. कचहरी का कमरा कुरुक्षेत्र बन जाता और लम्बी, बोर, कानूनी लड़ाई के बाद पता नहीं निर्णय क्या होता! हो सकता है कौरव मामले को सुप्रीम कोर्ट तक खींचते.

आज का लेखक अगर महाभारत लिखता तो पूरी कहानी दूसरी होती. फिर भी अपेक्षाकृत वह मजे में रहता. किसी साहित्यिक पत्र में धारावाहिक रूप से प्रकाशित करवाता और अच्छा-खासा रुपया भी वसूल करता. कई भागों में छपवाता और भारी रॉयल्टी वसूलता. फिर संक्षिप्त संस्करण प्रकाशित कर कोर्स में लगवा देता. व्यासजी महाभारत लिखते समय रॉयल्टी की कल्पना नहीं कर पाए, न फिल्म की, पर आज का लेखक इन सभी पक्षों पर विचार कर ही काम करता. हो सकता है वह एक महाग्रन्थ के अतिरिक्त कुछ लघु उपन्यास भी निकालता, जैसे—राजा नल की कहानी, विराट राजा के यहां पांडवों के किस्से, भीष्म पितामह की जीवनी, कर्ण की ट्रेजेडी, सुभद्राहरण आदि सभी घटनाओं पर छोटे-छोटे जोरदार उपन्यास बन जाते. अकेले अर्जुन के कारनामे किसी जेम्स बांड से कम नहीं. बाकायदा सीरीज चल सकती थी. द्रौपदी की लम्बी कहानी और पाँच पतियों के साथ उसका जीवन कोई नया लेखक आत्म-कथात्मक शैली में लिखना पसन्द करता. द्रौपदी के अनुभव उसके लिए चुनौती बन जाते.

अश्वत्थामा के विषय में कहा जाता है कि कृष्ण के शाप से वह आज भी जीवित है. भला बताइए, महाभारत का एक पात्र अभी उपलब्ध है तो जरूर कहीं वोटर-लिस्ट में होगा. यह सच है कि वह कौरव-पक्षीय है पर नया लेखक भी तो तटस्थता पर जोर देता है. महाभारत की पुनः रचना के लिए अश्वत्थामा से काफी उपयोगी सामग्री मिल सकती है. लेखकों को चाहिए कि वे अश्वत्थामा की तलाश आरम्भ कर दें.

मगर भाई, महाभारत लिखकर भी क्या होगा? जनता में लोकप्रिय हो जाए, बिक्री खूब हो, मगर ये आलोचक लोग किताब को कौड़ी लिफ्ट नहीं देंगे. कहेंगे कि कथा को अनावश्यक विस्तार दिया गया है. इतिवृत्तात्मकता अधिक है. पात्रों के चित्रण में अतिरंजना है. लेखक ने अनेक सुपरमैन खड़े कर अस्वाभाविकता ला दी है. अनेक प्रसंग व्यर्थ हैं और मूल कथा से उनका कोई सम्बन्ध नहीं. लेखक ने श्रम काफी किया, पर व्यर्थ! उसे उचित रूप से सम्पादन करना नहीं आता. उपदेशों की भरमार है, जैसे युद्ध आरम्भ होने की घड़ियों में कृष्ण द्वारा अर्जुन को इतना लम्बा उपदेश देना अस्वाभाविक जान पड़ता है. इस उपदेश के चलने तक लड़ाई कैसे रुकी रही होगी, समझ में नहीं आता. लेखक ने नाम रखने तक में पक्षपात किया है. कौरव-पक्ष के व्यक्तियों के नाम दुर्योधन, दुःशासन, दुर्मुख आदि हैं, जो उचित नहीं प्रतीत होते. भला बताइए, जन्म के समय पिता को क्या पता था कि इन्हें आगे जाकर विलेन (खलनायक) बनना है, जो वह ऐसे नाम रखता!

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बेचारे लेखक को जवाब देना मुश्किल हो जाता. इतना विशाल ग्रन्थ सिर पर उठाए वह साहित्य में अपनी जगह बनाने की कोशिश करता और आलोचक उसे मार भगाते. व्यासजी के सामने ये दिक्कते नहीं थीं. साहित्यिक वादों और अहंजीवी आलोचकों से वे घिरे हुए नहीं थे. और आज का लेखक यों भी अकेलेपन का चित्रण करने का इच्छुक है. उसका हीरो अर्जुन नहीं, अश्वत्थामा है, जो कड़वी स्मृतियों का भार ले आज भी जी रहा है, जो युद्ध के नाम से काँपता है. सो आज का लेखक अगर महाभारत लिखने भी बैठे तो वह वह जाने-अनजाने दूसरी, बिलकुल दूसरी, कहानी लिखने लग जाएगा. हो सकता है वह लिख भी रहा हो!

पुस्तकः वोट ले दरिया में डाल
लेखकः शरद जोशी
प्रकाशकः राजकमल प्रकाशन

Tags: Books, Hindi Literature, Hindi Writer, Literature

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